Sunday, April 1, 2018

तेरी कहानी-1

रामरती (एक थी रामरती ) अपनी निर्भीकता कई पीढ़ियों में बाँट कर आखिर अपनी कोशिश में कामयाब हो ही जाती  और तैयार कर ही देती है न जाने कितनी मणिकर्णिका।
दरवाजे की ओट से झांकती आंखे तो कुछ नीची निग़ाह अचानक तीखी होकर अपने लिए रास्ता बनाती है और पारे उन रास्तों को आसान बनाने का नुस्खा इतना सहज बता उन आँखों को बड़े ही खूबसूरती से आत्मविश्वास के काजल से सजा देती है।
असल में पारे अपनी कहानी मणिकर्णिका में बिना कह देती हैं की आप ने जो "इ" निकाला है तो अब आप शव हो आपकी पूर्णता व समाज की प्रगति का आधार हमारे द्वारा घुमाएं गये प्रगति के पहिये से ही है।
उन्होंने स्त्री की मंद मुस्कान, लज्जा,मुख फेर लेना, तिरछी दृष्टि , मीठी बातें इन सब से निकाल कर उसे यथार्थ के सामने मणिकर्णिका के रूप में खड़ा किया है जिसमे वाद है प्रतिवाद है पर उसका तरीका पारम्परिक न होकर  गैर पारम्परिक प्रस्तुत किया है लेकिन इस प्रस्तुति में उनके स्त्री पात्र अपना फर्ज नहीं भूलते वो जानते है उनके लिए रहा आसान नहीं इसीलिए वो चाम को नहीं काम को तवज्जो देते है लेकिन वो ये भी जानते है इन सब के बीच उन्हें न सिर्फ अपनी रहा खुद खोजनी है बल्कि उस रहा के झाड़- झंखाड़ को उन्हें खुद ही साफ करना है।
लड़कियों के रास्ते को आसान बनाने के लिए पारे ने वक्त का पहिया घुमा दिया है कच्चे- पक्के रास्तों से आई लड़कियां
वक्त के पहियों में बैठ गुनगुनाती है--

मंज़िल मिली मुराद मिली मुद्दआ मिला सब कुछ मुझे मिला जो तिरा नक़्श-ए-पा मिला....।