Thursday, May 12, 2016

गुमनाम घाटी में कोयल

सभ्य शहरी उदासी के बीच पेड़ों ने गुलाबी दुकूल ओढ़ने का साहस कर ही लिया जिन्हें देख कर बालकनी में लगे गमलों के फूलों ने अपने जन्म स्थान की कहानी सुनना शुरू कर दिया जिसे सुनकर कोयल को अपनी कुहू-कुहू याद आई पर ये क्या कोई एक भी प्रसन्न चेहरा नहीं दिखता और उसकी नक़ल उतरने वाला बचपन कहां गया ? अरे वो तो है पर ये तो बुड़ापे से सीधे लुढकता हुआ आया लग रहा है।
कुहू-कुहू करती हुई कोयल ने अपनी सांसे फुला ली है वो खुश रहने के सारे रहस्य एक ही सांस में बता रही है । वो सपनो के देश की बात नहीं करती वो खुद से खुद को रचने की बात कहती है। पर शायद उसे पता नहीं दुनिया अब पास नहीं आई है दूर हो गई है और इतनी बड़ी भी हो गई है कि हम सब एक दूसरे के होने को महसूस ही नहीं कर पा रहे है। हम सब कविता की डायरी के वो पन्ने है जो गुम हो चुके है। हम सुनते है लोगों को उनकी अनुपस्थिति में क्योंकि उपस्थिति में हम ख़ामोश ही नहीं रहते ।लोगो के जाने के बाद हम उनके शब्द उठा कर उसे महान बताते बताते फिर उसे भूल जाते है । अब धूप नृत्य नहीं करती क्योंकि अँधेरा ज्यादा है और क्यों न हो सूरज उजाले और अँधेरे के बीच भटक रहा है ,बेफिक्र विचारों से भेट करने के लिया पर ये मुमकिन नहीं क्योंकि हमारा मन  खोये अतीत और वर्तमान के बीच ठहर गया है और हम भाग रहे है चाँद के पीछे फिर लुढ़कते है धन की फिसलपट्टी से मौत के पहले मिलने वाली गुमनाम घाटी में।
रुको सुनो मुझे मेरी कुहू कुहू कुछ कहती है वो तुम्हें अँधेरे की कायनात से निकाल कर रोशनी के कहकशां के बीच ले जाने आई है। तो चलो चले खुद से खुद को समझने हँसने और हँसाने ।
कागला से पूछो क्या कोयल मदभरी है सभ्य समाज में ऐसा ही होता है ?

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