Tuesday, October 6, 2015

चमकते चाँद को टूटा हुआ तारा ......


अजीब सा होता है मन हमेशा जो जी रहा होता है उसके विपरीत चाहता है. जब नौकरी कर रही थी तो फुरसत के पलो को चुराती थी आज जब अवैतनिक अवकाश पर हूँ ,और फुरसत है तो मन काम करना चाहता है.इसी उधेड़ बुन में हूँ कि ख्याल आता है आज अकेले दिल्ली देखू ,ख्याल अच्छा है पर किसकी नजर से देखू दिल्ली को.
इतिहास की नजर से देखू तो दिल्ली कहेगी इसमे नया क्या है बहुतो ने देखा है. अपनी नजर से देखूँगी तो दिल्ली के साथ अनन्य करुँगी। इसलिए आज दिल्ली को उसकी ही नजर से देखती हूँ। देखू दिल्ली अपने बारे में क्या कहना चाहती है।
कभी किसी जगह या इंसान के आंतरिक स्वरूप के साथ देखना हो तो मूक नहीं मौन होकर देखो कहते है उसको संपूर्ण रूप से उसके पूरे वजूद के साथ समझ जाओगे। बस में भी यही करने निकल पड़ती हूँ। घूमते- घामते पहुचती हूँ स्टेशन, स्टेशन के बाहर की तरफ एक बैंच पर बैठ कर आते जाते लोगो को देखती रहती हूँ। मौन तो नहीं हो पाती मूक जरूर हूँ।
दिमाग में सनातन प्रश्न चल रहा है एक दिन सबको जाना है फिर क्यों इंसान इतना हैरान परेशान है. फिर उन विचारो को झटका देकर भगाने की कोशिश करती हूँ कि तभी भागो-भागो की आवाज आने लगती है देखती हूँ कुछ बेहद ही गरीब लोग पर, भिखारी नहीं इधर से उधर होने लगते है मैं भी बैंच छोड़ कर स्टेशन की दुसरी तरफ चली आती हूँ,जहा कुछ कम गहमा-गहमी है तभी मेरी नजर एक औरत पर पड़ती है, अरे इसे भी तो मेने भागते देखा था मैं उसके पास जाती हूँ इतने कष्ट में भी उसके चहरे पर मुस्कान है मेरा चेहरा तुरंत उसका प्रतियुत्तर देता है.
मैं पूछती हूँ वो तुम सब लोगो को भगा क्यों रहे थे मुस्कुरा कर वो कहती है नई हो अखबार से आई हो क्या करोगी मैम साहब हर साल तो वो अखबार वाले हमारी कहानी छापते है पर क्या होता है मैं कहती हूँ मैं अखबार वाली नहीं, कहानी लिखुंगी पर छापूगी नहीं दिल्ली देखने आई हूँ वो पहले तो मेरी बात सुनकर अपनी बड़ी -बड़ी आँखे जो गरीबी से अंदर धस गई फैला लेती है फिर जोर से हस पड़ती है में उसे मन ही मन नमन करती हूँ इतनी गरीबी और लाचारी में उसकी हसी कायम है और एक हम तथाकथित ऐशो आराम की जिंदगी बसर करने वाले को इनसे सबक लेना चाहिए खैर वो कहती है अरे मैम साहब दिल्ली देखना है तो आप क़ुतुबमीनार दखो वो बड़ा दरवाजा देखो यहाँ क्या रखा है
मैं उसकी बात अनसुनी करके उसे खोदती हूँ तुम्हारा घर कहा है वो चहरे पर फीकी मुस्कान लाती है और कहती है अभी थोड़ी देर पहले था अब नहीं अरे क्यों मेने कहा ऐसा ही होता है हर वार ,हम जुग्गी वाले है न मैम साहब क्या करू मेरी किस्मत ही ख़राब है और उसने जो कहानी बताई वो कुछ ऐसी थी माँ बाप थोड़ा बड़े होने पर मर गए चाचा दिल्ली स्टेशन पर एक दिन छोड़ कर जो गए तो आज तक नहीं लोैटे फिर एक दिन कोई एन. जी. ओ वाले ले गए वही रही मेरा मरद वही सफाई का काम करता था उससे मैंने शादी कर ली सोचा था अब सुख से रहूगी रही भी दोनों काम करते और रात को अपनी टूटी-फूटी जुग्गी में सो जाते थे। दो साल में आठ से दस बार भगाया गया है हमें। अब तो समझ नहीं आता मैम साहब क्या करे. हमारे इसी कारन वोट नहीं बन पाते इसलिए कोई हम पर ध्यान नहीं देता। मैंने उसका नाम पूछा उसने अपना नाम तारा बताया और आगे बड़ गई और मैं सोचने लगी संविधान तो सभी नागरिको को बुनियादी सुविधाएं मुहैया कराने की बात करता है। सरकार जो योजनाए बनती भी है इन बेघर लोगो के लिए उनसे ये बेखबर रहते है। कोई समाधान नहीं।
मैं उठ कर चल दी कही दूर रेडियो पर एक ग़ज़ल की आवाज आ रही थी ....चमकते चाँद को टूटा हुआ तारा बना डाला ……… मैं अब मौन हूँ मैंने शायद दिल्ली देख ली है

5 comments:

  1. दिल्ली क्या, हर तरफ कुछ कम कुछ अधिक यही नज़ारा है

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  2. कमोवेश यही नज़ारा सब जगह मिल जाता है आसानी से...
    संविधान में जो लिखा होता है वह सरकार को पता है लेकिन गरीब-कमजोर का नहीं और यदि कोई बता भी दें उन्हें तो उनके लिए यह कोई बड़ी बात नहीं? सरकार की योजनाएं बेघरों के लिए बनती हैं लेकिन उन्हें बनते बिगड़ते ५ साल जो हो जाते हैं?

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  3. ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, उधर मंगल पर पानी, इधर हैरान हिंदुस्तानी - ब्लॉग बुलेटिन , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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  4. कितनी बार -कितने रूप बदल चुकी है यह नगरी इसका स्वभाव ही समझ में नहीं आता .

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  5. आप सब का बहुत बहुत धन्यवाद

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