Thursday, April 23, 2015

उलझती सुलझती औरतें

बीते समय में
छत पर जुट आती थीं औरते
झाड़ती थीं छत को, मन को
बनाती थी पापड़, बड़ियाँ अचार
साथ में बनाती थी ख़्वाब

रंगीन ऊन के गोले
सुलझाते-सुलझाते
उलझती थी बारम्बार ।

पर आज की औरते
जाती नहीं छत पर ।

उनके पाँव के नीचे छत नहीं पुरी दुनिया है
उनके पास है जेनेटिक इंजीनियरिंग, एंटी-एजिंग, क्लोनिंग , आटोमेंटेंशन
जिनके एप्लीकेशन में उलझी
सुलझाती है पूरी दुनिया की उलजाने 

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