Thursday, March 19, 2015

अध्याय पाक मोहब्बत


मैं बैठी हूँ आज भी
खिजा की बहारों के लिए
तू शायद फिक्रमंद है रोटी के लिए

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 जब ख़ामोशी में तुम सुनने लगो
पतझर में जब बहार बुनने लगो
नजर आए चाँद आईने जैसा
तब समझना अध्याय पाक मोहब्बत है ये
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 एक शरारा सा भड़का है दिल में मेरे
की उसकी तपिश का एहसास हुआ
मैं कहा मुझे पता
वो कहां उसे पता
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 समंदर से यारी बहुत की हमने
पर कही किनारा नजर नहीं आया
आज इस शहर में हर गरीब
मोहब्बत में हारा नजर आया 


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